रंग-बिरंगी मिठास की कैसे बदली ‘जिंदगी’, खाने के बाद सौंफ और मिसरी के संबंध को ऐसे समझें

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कुछ दशक पहले तक उत्तराखंड के कई इलाकों में मटमैली मिसरी की डली लोकप्रिय थी, जो खांड के गाढ़े घोल को सांचे में डाली जाती थी। यह बच्चों को मिठाई के रूप में मिलता था और बड़ी भी फीकी चाय के साथ इसके कटक उम्मीदवार थे। यही ग्रामीण की चीनी थी। लोकगीतों में तुलना की तुलना मिसरी की डेली से की गई थी।

सौंफ और मिसरी पेश करने का कार्य

सफ़्रांट रेस्तरां, खाने के बाद बिल के साथ सौंफ और मिसरी पेश करने का कार्य करता है। हम में से ज्यादातर का आज इतना भर नाता मिसरी से रह गया है। हालत यह हो चुकी है कि हमारे एक मित्र ने हमें बताया कि इस मिठाई का आविष्कार मिस्र में हुआ, इसी के लिए यह प्रविष्टि हुई है! छोटी रवे वाली सफेद मिसरी के अन्य रूप, कूजा मिसरी आज बहुत कम दिखती हैं। बंगाल की लली के लिए ताड़/खजूर की मिश्री से कभी-कभी खांसी-खराश के घरेलू उपचार के नुस्खे देखें। इसके निर्माता मशहूर दुलाल बारा इसे दवा जैसी दिखने वाली शीशियों में ही पहचान रहे हैं।

‘मिसरी सर्वगुण संपन्न है’

इंटरनेट पर लालबुझक्कड़ी ज्ञान का ज्वर उफनता ही रहता है, इसलिए उसके क्रिटिकल के अनुसार मिश्री सर्वगुण प्राप्त है- यह वाणी को मीठा बनाने के साथ-साथ पाचक भी है, शक्तिवर्धक और मधुमेह के लिए चीनी से बेहतर है। इन प्रमाणन को प्रमाणित नहीं किया जा सकता है, इसलिए सतर्क रहने की आवश्यकता है। डॉक्टरों के मुताबिक चीनी के घोल से ही रवेदार सुतली सख्त मिसरी बनायी जाती है। इसके हमारे शरीर पर समान प्रभाव होते हैं, जैसे चीनी के कुछ अंश। कर्मकांडी लोग संयोग में बनी हुई चीनी से इस कारण परहेज करते थे कि आम मान्यता थी कि इसके उत्पादन की खोज प्रक्रिया में गंधक का उपयोग होता है और पशु की हड्डियों से प्राप्त रासायनिक तत्वों का समावेश भी होता है। कुटीर उद्योग में निर्मित गुड, खांडसारी को ही सात्विक माना जाता था और इसलिए खादी चीनी और कालपी नामक मिसरी को ही पूजा सामग्री में शामिल किया जाता था।

उत्तराखंड के तमाम मटमैली मिसरी की डली

कुछ दशक पहले तक उत्तराखंड के कई इलाकों में मटमैली मिसरी की डली लोकप्रिय थी, जो खांड के गाढ़े घोल को सांचे में डाली जाती थी। यह बच्चों को मिठाई के रूप में मिलता था और बड़ी भी फीकी चाय के साथ इसके कटक उम्मीदवार थे। यही ग्रामीण की चीनी थी। लोकगीतों में तुलना की तुलना मिसरी की डेली से की गई थी। प्रवासी पहाड़ी इसे अपने साथ महानगरों में ‘मुलुक मेवा’ कह कर ले जाते हैं घर की याद ताजा रखने के लिए। कुजा मिसरी इस ‘डली’ की तुलना में कहीं अधिक जुड़ाव है। एक पतली लिपटी की तरह इसकी आपस में संबद्धता होती है, जिसे बनाने के लिए विशेष निवेश की आवश्यकता होती है। बांस की पतली सींकों पर सुतली का जाला बुनकर उसे खादी चीनी के घोल में लटकाया जाता था।

‘शुगर कैंडीज’ की दृष्टि

अंग्रेजी भाषा में यह ‘शुगर कैंडी’ सभी की पहचान हैं। मिसरी का एक और रूप जो सख्त नहीं है, ‘कैंडी फ्लॉस’ वाले व्यक्ति हैं। अपने देश में यही ‘बुढ़िया के बाल’ के रूप में दागे जाते हैं। वेस्ट में ऐसी कलाकार को ‘पुल्ड शुगर’ की कलाकारी कहा जाता है। हमारी राय में एक की खेती भारत में हजारों सालों से होती है। यह पूर्ववर्ती का कोई कारण नहीं है कि चीनी का आविष्कार किसी दूसरे देश में हुआ। इसके लिए प्राचीन संस्कृत साहित्य में शर्करा शब्द का प्रयोग होता है, जिससे शक्कर की प्रस्तुति हुई है।

बैजिक मिसरी की शुरुआत

नौजवान पीढ़ी 21वीं सदी में अपनी विरासत को टटोलने लगी है। प्राकृतिक, कृत्रिम रंग रसायन स्वाद मुक्त पदार्थ उसे आकर्षित करते हैं। इसीलिए कई बड़े चीनी मिलों ने भी हरित/जैविक मिसरी की शुरुआत की है। ताड़ की पाम कैंडी भी इन दिनों औषधीय गुणों के लिए जायके के लिए इस्तेमाल की जाने वाली है। घर पर तैयार शरबती पेय में चीनी के विकल्प के रूप में मिसरी का प्रयोग करने वालों की संख्या भी बढ़ रही है।

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